गांवों में चिकित्सा सेवा का विस्तार हो तभी झोला छाप खत्म होंगे...




 देश में कार्यरत सत्तावन प्रतिशत डॉक्टरों के पास मेडिकल की डिग्री नहीं है और वे मरीजो का इलाज कर रहे हैं. यह चौका देने  वाला रहस्योद्घाअन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने अपने हालिया रिपोर्ट में किया  है इससे यह बात तो साफ है कि भारत में मरीजों का इलाज कैसे होता है?. स्वास्थ्य सेवाओं पर नजर रखने वालों के लिये यह रिपोर्ट इतनी चौकाने वाली नहीं होगी चूंकि वे  इस हकीकत को जानते हैं. भारत के चिकित्सा संगठनों और समाजसेवी संस्थाएं इस सबंन्ध में कई बार सरकार को यह अवगत भी करा चुकी है लेकिन किसी प्रकार की कड़ी कार्रवाई नहीं होने के कारण आज भी यह स्थिति बनी हुई  है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तो यह कहा है कि बारहवीं पास लोग डाक्टरी के पेशे में लगे हैं लेकिन छत्तीसगढ जब मध्यप्रदेश के साथ जुड़ा हुआ था तब एक गांव में एक आठवीं पास को गांव का हर इलाज यहां तक कि आप्रेशन भी करते पाया गया  था. विश्व स्वस्थ्य संगठन की रिपोर्ट में  यह भी कहा गया है कि खुद को एलोपैथिक डॉक्टर कहने वाले 31 फीसदी लोगों ने सिर्फ 12वीं तक पढ़ाई की है डब्ल्यूएचओ ने 2001 की जनगणना पर आधारित रिपोर्ट जून में जारी की थी. रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीण भारत में लोगों का इलाज कर रहे पांच में एक डॉक्टर ही इलाज के लिए उपयुक्त डिग्री या योग्यता रखता है. भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) के एक वरिष्ठ अधिकारी ने इस रिपोर्ट पर कहा कि झोलाछाप डॉक्टरों पर कार्रवाई का जिम्मा राज्य की चिकित्सा परिषदों पर है और उन्हें ही उस पर कार्रवाई करनी चाहिए सवाल यह डठता है कि एमसीआई जैसी संस्था के अनुरोध पर भी ऐसे लोगों पर कार्रवाहीन हीं होती तो यह समझा जाना चािहये कि राज्यों की सरकारे व केन्द्र  सरकार दोनों ही अपनी गलती छिपाने के लिये वर्तमान व्यवस्था को बनाये रखना चाहती है ताकि वे अपनी कमी को छिपायें रख सके. सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्णय के अनुसार, अन्य पद्धतियों से इलाज करने वाले एलोपैथिक दवाओं से उपचार नहीं कर सकते. वैसे  एमसीआई 57 प्रतिशत  मेडिकल प्रैक्टिशनर्स के पास एमबीबीएस या बीडीएस की डिग्री न होने के आंकडेे की पुष्टि करने से इस आधार पर इंकार करती है कि  समयांतराल में स्थितियां काफी बदली हैं. एमसीआई के हिसाब से देश में नौ लाख पंजीकृत डॉक्टर हैं. एमसीआई के इस आकडे पर भी सवाल उठता है कि क्या इतने कम डाक्टरों से देश की एक अरब बीस या पच्चीस करोड़ लोगों वाले देश का इलाज किया जा सकता है? दिल्ली मेडिकल काउंसिल ने पिछले साल 200 अपात्र मेडिकल प्रैक्टिशनर्स के खिलाफ  केस दर्ज कराकर कार्रवाई की थी. राष्ट्रीय स्तर पर एलोपैथिक, आयुर्वेदिक, यूनानी और होम्योपैथिक डॉक्टरों का आंकड़ा एक लाख की आबादी पर 80 डाक्टर और नर्सों का 61 था. स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में वैश्विक लक्ष्यों को पाने की राह में स्वास्थ्य विशेषज्ञों की कमी बड़ी चुनौती बनकर उभरी है. देश को लाखों डॉक्टरों की जरूरत है, लेकिन हर साल देश में सिर्फ 30 हजार डॉक्टर विश्वविद्यालयों से पढ़ाई पूरी कर बाहर आते हैं. यह नहीं कि देश में चिकित्सक बनने के लिये छात्रों की कमी है मगर देश में इसके लिये सुविधाओं की कमी के साथ-साथ जो चिकित्सक पढ़ लिखकर तैयार होते हैं वे गांवों में जाकर मरीजों का इलाज करने के लिये कतई तैयार नहीं है. शहरों की गली गली में चिकित्सालय और चिकित्सक भरे पड़े हैं इनमें से कोई भी गांव में जाकर मरीजों का इलाज करने के लिये तैयार नहीं है. इसका परिणाम यह हो रहा है कि े ग्रामीण दूर दूर तक जहां चिकित्सा सुविधा उपलब्ध  है वहां पहुंचने के लिये भारी जोखिम उठाते हैं.प्राथमिक तौर पर वे झोला छाप डाक्टरों की मदद लेते हैं.उसके बाद जो होता है वह असली डाक्टरों के लिये भी मुसीबत खड़ी कर देने वाला होता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन  की चिंता के अनुरूप  देश में एक तो झोला छाप चिकित्सको पर पूर्ण प्रतिबंध की जरूरत हैं वहीं नये चिकित्सकों के लिये भी अनिवार्य किया जाना चाहिये कि वे अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद कम से कम दो वर्ष का समय गांवों में सेवा करें. इसके अलावा गांवों में चिकित्सालय खोलने के लिये निजी चिकित्सकों प्रोत्साहित करे.

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