क्या कानून के डंडे से पर्यावरण सुधर सकता है?जनजागृति भी जरूरी!





पर्यावरण संरक्षण तथा प्रदूषण पर चर्चा हर जगह है, फिर भी न तो कोई दोषी पाया जाता है न किसी को सजा मिलती है.छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर का ही उदाहरण ले लीजियें यहां प्रदूषण इतना ज्यादा है कि इस राजधानी की गिनती देश के सातवें प्रदूषित शहरों की सूची में है.ग्रेटेस्ट साइंटिस्ट आइंस्टीन ने कहा था- दो चीजें असीमित हैं-एक ब्रह्माण्ड- दूसरा मानव की मूर्खता! मनुष्यों ने अपनी  मूर्खता के कारण अनेक  समस्याएं पैदा की हैं, इनमें पर्यावरण- प्रदूषण अहम है. हम किसे दोषी ठहराएं? क्या किसी को दोषी ठहराना या दंड देना ही समाधान है? चूंकि दंड संहिता से ही सुधार होता तो अब तक अदालतों से दंडित लाखों लोगों के उदाहरण द्वारा सारे प्रकार के अपराध ही बंद हो चुके होते पर हम देखते हैं, ऐसा हुआ नहीं. वास्तव में इसके लिये जरूरी है जन-जागृति. प्रकृति का प्रत्येक कार्य व्यवस्थित एवं स्वाचालित है, उसमें कहीं भी कोई दोष नहीं है हमने अपनी अविवेकी बुद्धि के कारण अपने आपको प्रकृति का अधिष्ठाता मानने की भूल कर दी है. मानव द्वारा की गई भूलें प्रकृति के कार्य में व्यवधान डालती हैं ओर ये व्यवधान सभी को नुकसान पहुंचाते हैं. कारखानों से निकलने वाला धुआं, दूषित जल और गंदगी सब मानव निर्मित ही तो हैं.मानव पर्यावरण का एक महत्त्वपूर्ण उपभोक्ता है,अपने नैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक विकास की उच्चतम उपलब्धियां मानव उसी समय प्राप्त कर पाएगा जबकि वह प्राकृतिक सम्पदा का विवेकपूर्ण उपयोग करेगा. जन संख्या में भारी वृद्वि, भोगवाद की संस्कृति, प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक उपयोग, युद्ध, परमाणु परीक्षण, औद्योगिक विकास आदि के कारण नई-नई पारिस्थिति उत्पन्न हो रही हैं. इन समस्याओं को उत्पन्न न होने देने की जिम्मेदारी मनुष्य की है उसका प्रमुख उद्देश्य भी यही होना चाहिए. पृथ्वी को इस संकट से बचाने के लिए स्थानीय स्तर पर प्रदूषण को नियंत्रित रखने के साथ ही पर्यावरण को सुरक्षित करने हेतु ढेरों कानून राष्ट्र्रीय, अंतर्राष्ट्र्रीय, स्थानीय स्तर पर भी बनाए जा चुके हैं फिर भी प्रदूषण पर प्रभावी नियंत्रण नहीं हो पाता,वायु प्रदूषण नियंत्रण कानून 1981 के उल्लंघन हेतु कठोर कारावास की सजा के प्रावधानों के बावजूद राष्ट्र्र में सैकड़ों शहर के वायुमंडल पर प्रदूषण का स्तर क्रांतिक स्तर तक पहुँच चुका है, और पहुँच रहा है, जल प्रदूषण नियंत्रण एवं निवारण अधिनियम 1976 में अर्थदंड एवं कारावास के प्रावधानों के बावजूद कई नदियां जहरीली हो चुकी है. प्लास्टिक वेस्ट पर कानून में भी भारी अर्थदंड के बावजूद प्लास्टिक कचरों के ढेर बढ़ रहे हैं.म्यूनिसिपल सॉलिड वेस्ट (नगरीय ठोस अपशिष्ठ) कानून में भी कठोर दंड के बावजूद महानगरों में गंदे कचरों के पहाड़ प्रकट हो चुके हैं.हमने यह पाया है कि इस दायित्व के निर्वहन के लिए जिम्मेदार समाज के महत्वपूर्ण घटक भी अपनी जिम्मेदारी को कानून द्वारा सरकार पर थोप देना ही पर्याप्त मानते हैं किन्तु कानून के उल्लंघन के लिए किसी एक आदमी को कितनी भी बड़ी सजा क्यों न दे दी जावे, उससे ऐसा कोई उदाहरण प्रस्तुत नहीं होता, जिससे कि सफलतापूर्वक प्रदूषण नियंत्रित किया जा सके। चीन की राजधानी बीजिंग में प्रदूषण के भयावह स्तर केे कारण आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी.स्कूल, कालेजों की भी छुट्टी करनी पड़ गई. यद्यपि हमारे देश  में ऐसी परिस्थितियां अभी तक निर्मित नहीं हुई हैं, किन्तु हम सभी को ज्ञात है कि कहां कितना प्रदूषण हो रहा है और जन-सामान्य में इसका क्या दुष्प्रभाव है. शासकीय प्रयासों के द्वारा, व्याप्त प्रदूषण के स्तर पर काफी कमी आई है, किन्तु हम यह निश्चित रूप से कह सकते हैं कि यदि केवल कानूनी प्रयासों के स्थान पर सामूहिक सामंजस्य एवं आपसी समझ के द्वारा प्रयास किए जाते तो प्रदूषण के स्तर पर और ज्यादा अच्छे से नियंत्रण करना सम्भव हो पाता. जितना श्रम, साधन, धन एवं समय हम सब प्रदूषण नियंत्रण एवं पर्यावरण संरक्षण के कानूनी मार्ग में व्यय करते हैं, उसका एक चौथाई भी हमने सामूहिक, सामाजिक सामंजस्य के द्वारा किए होते तो इतनी बुरी स्थिति कभी भी नहीं बनती.गंभीरता से देखें तो पृथ्वी पर जीवन के बुनियादी आधार हवा, पानी और मिट्टी तीनों पर ही खतरा मंडरा रहा है और खतरा भयंकर, विनाशकारी है यह सभी  को भलीभांति समझकर आगे बढऩा चाहिये.

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