डाक्टरी 'व्यवसायÓ पर सुको का जबर्दस्त प्रहार!



भारतीय मेडिकल कौंसिल को सन् 2010 मेंं इसलिये बंद करना पड़ा था चूंकि इसके अध्यक्ष घूस लेते पकड़े गये थे. अब सर्वोच्च न्यायालय ने डॉक्टरी के धंधे पर जबर्दस्त प्रहार किया है. उसने अपने एक फैसले में कहा है कि यह पवित्र कार्य अब 'धंधाÓ बन गया है, जिसका लक्ष्य सिर्फ पैसा कमाना रह गया है। कौंसिल डॉक्टरी शिक्षा के मानदंड कायम करती है, डॉक्टरों की डिग्रियां तय करती है और देश की चिकित्सा-व्यवस्था पर नियंत्रण रखती है. कौंसिल ने पिछले पांच-छह वर्षों में भी अपने काम में कोई सुधार नहीं किया है- एक संसदीय कमेटी की जांच रिपोर्ट में भी कौंसिल की कारस्तानियों की कड़ी भर्त्सना की गई रपट इस साल मार्च में आई उसके पहले 2014 में एक विशेषज्ञ समिति ने भी इस कौंसिल की काफी खिंचाई की थी लेकिन सरकार ने कोई ठोस-कार्रवाई नहीं की मजबूर होकर सर्वोच्च न्यायालय ने इस मेडिकल कौंसिल को लगभग भंग कर दिया है ,पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर.एम. लोढ़ा की अध्यक्षता में उसने एक कमेटी बना दी है, जो तब तक काम करती रहेगी, जब तक कि कोई नया मेडिकल आयोग नहीं बन जाता.सर्वोच्च न्यायालय ने इस कौंसिल के अधिकार छीनने का जो फैसला दिया है, उसमें साफ-साफ कहा है कि देश में मेडिकल की पढ़ाई का स्तर एकदम गिर गया है और यह कौंसिल भ्रष्टाचार का अड्डा बन गया है.देश में 400 मेडिकल कॉलेज हैं,उनमें से कितने ही ऐसे हैं, जिनमें से पढ़कर निकले हुए डॉक्टर प्राथमिक चिकित्सा करने लायक भी नहीं होते.ऐसा इसीलिए होता है कि मेडिकल कॉलेजों में छात्र-छात्राओं की भर्ती का पैमाना एक-जैसा नहीं होता. हर कॉलेज और हर राज्य अपने-अपने ढंग से भर्ती-परीक्षाएं लेता है और अपनी सुविधा के मुताबिक प्रवेश दे देता है. इन भर्तियों में अब लाखों नहीं, करोड़ों रु. का लेन-देन होता है. छात्र की योग्यता का कोई मतलब नहीं पैसा ही सबकुछ है जो छात्र डॉक्टर बनने के लिए एक-दो करोड़ रु. 'केपिटेशनÓ के तौर पर देगा, वह डॉक्टर बनने पर पहला काम क्या करेगा? वह मरीजों से पैसा वसूलेगा,डॉक्टरी का धंधा फिर मूलत: सेवा का नहीं, वसूली का रह जाता है.डॉक्टरी की पढ़ाई यदि सस्ती और स्वभाषा में हो तो देश के ग्रामीण, गरीब और वंचितों को भी डाक्टर बनने का मौका मिलेगा और डॉक्टरों की कमी भी खत्म हो जाएगी. जिन छात्रों को 'केपिटेशन फीसÓ नहीं देनी पड़ती, जो अपनी योग्यता से भर्ती होते हैं, उनकी परेशानी भी कम नहीं है. उन्हें एमबीबीएस की पढ़ाई के लिए 80 लाख से एक करोड़ रु. तक फीस देनी पड़ती है. क्या मध्यम वर्ग का कोई भारतीय अपने बेटे या बेटी की मेडिकल की पढ़ाई पर हर माह डेढ़-दो लाख रु. खर्च कर सकता है? जो योग्य और ईमानदार डॉक्टर होते हैं, वे भी रोगियों को ठगने के लिए मजबूर हो जाते हैं, वे अपनी फीस दिखावटी तौर पर कम या ठीक-ठाक रखते हैं लेकिन वे दो लोगों से अपनी सांठ-गांठ बना लेते हैं- एक तो मेडिकल टेस्ट करने वाली प्रयोगशालाओं से और दूसरे, दवा निर्माता कंपनियों से! पहले वे मरीजों को अनाप-शनाप टेस्ट लिख देते हैं. जांच के नाम पर मरीज़ों से सैकड़ों-हजारों रु. ठग लिये जाते हैं,उनमें से डॉक्टर साहब का कमीशन उनके पास अपने आप पहुंच जाता है फिर डॉक्टर साहब मरीज़ के लिए दवाइयों पर दवाइयां पेल देते हैं. छोटे से मर्ज के लिए मंहगी से मंहगी दवाई! लंबे समय तक लेते रहने की हिदायत के साथ! दवा-कंपनी और दवा-विक्रेता की पौ-बारह होती रहती है. उनके यहां से भी कमीशन अपने आप चला आता है.भोले मरीजों को इस भूल-भुलैया का सुराग तक नहीं लग पाता, वे समझते हैं, डॉक्टर साहब कितने अच्छे हैं!
डॉक्टरी की पढ़ाई में 'केपिटेशन फीसÓ को तो अदालत ने अपराध घोषित कर ही दिया है लेकिन खास पढ़ाई में भी बुनियादी सुधार की जरूरत है- अदालत ने यह भी ठीक किया कि सारे भारत में मेडिकल की भर्ती परीक्षा को एकरूप कर दिया, अब अलग-अलग कॉलेजों और राज्यों में न सिर्फ एकरुपता आ जाएगी बल्कि भ्रष्टाचार भी घटेगा. पैसे लेकर कोई कालेज सीटें बेच नहीं सकेगा लेकिन यह नई पद्धति तभी सफल होगी, जबकि प्रश्न-पत्रों की गोपनीयता बनी रहे और परीक्षा-पुस्तिकाओं की जांच में धांधली न हो.

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