सुप्रीम कोर्ट के सख्त निर्देशों पर राज्य सरकारों का रूख क्या होगा?



सरकारी जमीन और सरकारी सड़क दोनों ही पूरे देश की सरकारों के लिये मुसीबत बनी  हुई है.जहां निजी भूमि पर कुछ दबंग अपनी जोर आजमाइश करते हैं वहीं कुछ लोग ऐेसे भी हैं जो अपनी धन दौलत के बल पर जमीन को अपने कब्जे में करने लगे हैं. कांक्रीट के बढते जंगल के बीच आज सबसे मुसीबत बेजर कब्जर है विकसित होते शहरों की सड़को के आजू बाजू बेजा कब्जों की समस्या.  कब्जेधारियों के रहते सड़कों की चौड़ाई कम होती जा रही है तथा यह ट्रैफिक के लिये गंभीर समस्या बन रही है. बेजा कब्जे की नइ्र्र -नई टेक्नीक रोज अस्तित्व में आती है तथा लोग इसमें कामयाब भी हो रहे हैं और फिर जब इन्हें हटाने पहंचते हैं तो संगठित होकर विरोध भी करते हैं.करीब सात साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने खाली जमीन पर कब्जा कर अवैध रूप से बनाए गए पूजा-स्थलों के खिलाफ सख्त दिशा-निर्देश जारी किया था तब अदालत ने कहा था कि सड़कों, गलियों, पार्कों, सार्वजनिक जगहों पर मंदिर, चर्च, मस्जिद या गुरद्वारा के नाम पर अवैध निर्माण की इजाजत नहीं दी जा सकती लेकिन इतने साल बाद भी अगर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल सुनिश्चित नहीं हो सका है तो इसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए? धर्म और आस्था ऐसा संवेदनशील मसला है कि इससे जुड़ी कोई भी बात दखल से परे मान ली जाती है, भले उसमें किसी व्यक्ति या समूह का निहित स्वार्थ हो इसलिए अदालत की इस टिप्पणी का आशय समझा जा सकता है कि क्या हम अपने आदेश किसी कोल्ड स्टोरेज में रखने के लिए देते हैं! अब फिर सुप्रीम कोर्ट ने इससे संबंधित एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा है कि सार्वजनिक जगहों और फुटपाथ पर गैरकानूनी तरीके से जो धार्मिक ढांचे बनाए गए हैं, वह आस्था का मामला नहीं है; कुछ लोग इसकी आड़ में पैसा बना रहे हैं; फुटपाथ पर चलना लोगों का अधिकार है और भगवान उसमें कतई बाधा नहीं डालना चाहते! माना जाता है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद उस पर अमल होगा, मगर हकीकत यह है कि राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने अपनी ओर से इस मामले में आदेश का पालन करना जरूरी नहीं समझा. शायद यही वजह है कि अदालत ने इस बार सख्त रवैया अख्तियार करते हुए संबंधित पक्षों को आखिरी मौका देने की बात कही है. इसके बाद सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को अदालत में पेश होना पड़ सकता है।धर्म और आस्था ऐसा संवेदनशील मसला है कि इससे जुड़ी कोई भी बात दखल से परे मान ली जाती है, भले उसमें किसी व्यक्ति या समूह का निहित स्वार्थ छिपा हो बल्कि इसे तब भी सही ठहराने की कोशिश की जाती है जब उससे देश के कानूनों का उल्लंघन होता हो. देश भर में बनाए गए अवैध पूजा-आराधना स्थलों के बारे में यही सच है.अमूमन हर शहर या मुहल्ले में सड़कों के किनारे लोग बिना इजाजत के धार्मिक स्थलों का निर्माण कर लेते हैं. इसमें न सिर्फ सड़कों के किनारे फुटपाथों या दूसरी खाली जगहों पर कब्जा जमा लिया जाता है, रास्ते अवरुद्ध होते हैं, बल्कि इससे आस्था की संवेदना भी बाधित होती है मगर इससे उन लोगों को शायद कोई मतलब नहीं होता जो धार्मिकता के नाम पर उन पूजा-स्थलों का संचालन करते हैंजाहिर है, मकसद न सिर्फ जमीन, बल्कि उन स्थलों पर भक्तों की ओर से चढावे के तौर पर आने वाले धन पर भी कब्जा करना होता है.विडंबना है कि हमारे देश में जो भी चीज आस्था या धार्मिकता से जोड़ दी जाती है, उसके गलत होने के बावजूद लोग उस पर कोई सवाल उठाने से बचते हैं। इसी सामाजिक अनदेखी की वजह से धार्मिक स्थलों के नाम पर देश भर में जमीन कब्जाना आज एक तरह का कारोबार बन चुका है. समझा जा सकता है कि इस धंधे में लगे लोगों की नजर में साधारण लोगों की आस्था या संवेदना की क्या कीमत होगी। मगर यह समझना मुश्किल है कि निजी मकान बनाने से संबंधित हर जानकारी रखने और अवैध होने पर कार्रवाई करने को तत्पर रहने वाला सरकारी तंत्र सार्वजनिक जगहों पर होने वाले ऐसे निर्माण को किस आधार पर खुली छूट दे देता है. यह आस्था के नाम पर न सिर्फ जनमानस के साथ छल, बल्कि खुलेआम पर कानूनों का भी उल्लंघन है.सरकार को सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पूर्ण पालन करते हुए सभी  शहरों में आस्था स्थल विभिन्न स्थानों से हटवाकर सिर्फ एक ही स्थान पर जैसा भिलाई इस्पात संयत्र के सेक्टर छै में किया गया है वैसा निश्चित कर देना चाहिये. गली कूचे व सड़को के किनारें के आस्था स्थलों से न सिर्फ भक्तों का ध्यान बंटता है बल्कि पूरी व्यवस्था को भी  चुनौती मिलती है.


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