बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक हैं होली!



माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकश्यप नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था.अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था. उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी.हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था. प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्व हिरण्यकश्यप ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग नहीं छोड़ा. हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती. हिरण्यकश्यप ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे.आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया. ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है.प्रतीक रूप से यह भी माना जता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है.
वैर और उत्पीडऩ की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता  हैं .प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है. कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं.कुछ लोगों का यह भी मानना   है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था. इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था.इधर इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था. होली  का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है. संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं. होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा हैप्त प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी.वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था, उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था.अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा.इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीना आरंभ होता है अत: यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है, इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं. होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है. गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं.होली रंगों का त्योहार है, हँसी-खुशी का त्योहार है, लेकिन होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते है.प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह फिल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप हैं,लेकिन इससे होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती. अनेक लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक संगीत की समझ रखते हैं और पर्यावरण के प्रति सचेत हैं। इस प्रकार के लोग और संस्थाएँ चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए हुए हैं, साथ ही इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं.रासायनिक रंगों के कुप्रभावों की जानकारी होने के बाद बहुत से लोग स्वयं ही प्राकृतिक रंगों की ओर लौट रहे हैं. होली की लोकप्रियता का विकसित होता हुआ अंतर्राष्ट्रीय रूप भी अब आकार लेने लगा है.भारत में होली अलग-अलग प्रदेशों में भिन्नता के साथ मनाई जाती है. ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है.बरसाने की लठमा.र होली काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं, इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में भी 15 दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है. हम अपने छत्तीसगढ़ की बात करें तो यहां  होली अत्यंत शालीनता पूर्वक मनाने की  परंपरा रही हैं.छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है शहरों  में सवेरे से बच्चे,युवा सब रंगों की  टोली में निकलते हैं और दोपहर बारह एक बजे तक या ज्यादा हुुआ तो दो तीन बजे तक सब कुछ सामान्य हो जाता है. जबकि छत्तीसगढ के पडौसी राज्य मध्यप्रदेश में होली रंगपंचमी तक चलता है.इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के शृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएँ और भिन्नताएँ हैं।




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