बच्चों की पीठ से कापी, किताब, टिफिन का बोझ तो कम होगा लेकिन शिक्षा का स्तर कब सुधरेगा?




बहुत से लोगों को याद होगा कि एक समय ऐसा था जब बच्चों की बुनियाद फैले हुए चावल के ढेर या आटे के ऊपर रखी जाती थी- उन्हें वर्णमाला का पहला अक्षर अ या ए उसी पर लिखना सिखाया जाता था. धीर-धीरे स्लेट का प्रचलन हुआ और अब बच्चों की पीठ पूरी पढ़ाई का साधन बन गई! किंडर गार्डन और प्रायमरी स्कूल के बच्चों को इतनी पुस्तकें, कापियां, कम्पास बॉक्स, टिफिन और पानी की बोतल लादनी पड़ती है कि उनकी पढ़ार्ई तो छोडिय़े कमर तक टूट जाती है. एक दस किलो का बच्चा दस किलो से ज्यादा का वजन अपनी पीठ पर लादता है, अब शायद उसे ऐसा नहीं करना पड़ेगा. कम से कम छत्तीसगढ़ सरकार ने तो इस पर गंभीरता से सोचा है और सभी जिला शिक्षा अधिकारियों के नाम से परिपत्र जारी कर बच्चों की पीठ से बस्ते का बोझ हटाने का आदेश दिया है. अब देखना यह है कि इस आदेश का पालन कितना होता है. आदेश में कहा गया है कि विद्यालय के प्राचार्य एवं शिक्षक समय सारिणी में प्रति दिवस पढ़ाये जाने वाले विषयों का चयन ऐसा करें कि अत्यधिक मात्रा में पुस्तकें व कापियां लाने की बाध्यता न हो. सरकार यह मानने लगी है कि बस्ते का मूल वजन न्यूनतम नहीं होने से बच्चे के विकास पर प्रतिकूल असर डालता है. अशासकीय शालाएं बच्चों पर बस्ते का बोझ ज्यादा लादती रही है. सरकार ने इसे देखते हुए अब इन शालाओं के बच्चों के लिये रोज मुख्य पुस्तक के साथ अन्य संदर्भित पुस्तकें, कार्यपुुस्तिका, रजिस्टर इत्यादि साथ लाने की बाध्यता खत्म कर दी है. हालांकि सरकार का दावा है कि उसने अशासकीय शालाओं के प्रबंधकों से इस संबन्ध में बात कर ली है लेकिन यह शालाएं बच्चों के पीठ से बोझ हटा पायेंगी इसमें संदेह है. सरकारी स्कूलों की बनिस्बत निजी स्कूल ही बच्चों की पीठ को ज्यादा गर्म करती हैं वे यह शायद इसलिये भी करती हैं चूंकि वे इसके माध्यम से पालकों को यह संदेश देना चाहते हैं कि वे बच्चों को कैसा पढ़ाते हैं. किंडर गार्डन से लेकर प्रायमरी तक बच्चों के पुस्तकों का ढेर देखने से तो ऐसा लगता है कि वे उसे बुनियाद में ही यूपीएससी की परीक्षा में बिठा देंगे. क्या ऐसी शिक्षा का कोई फायदा है? शिक्षा पर बार-बार प्रयोग करने वालों ने क्या कभी शिक्षा के स्तर पर गंभीरता से विचार किया है. प्रायवेट शिक्षा तो जैसे-तैसे चल रही है मगर सरकारी शिक्षा में बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षकों का तो यह हाल ही कि वह न ठीक से अंग्रेजी जानते हैं और न हिन्दी, या कोई अन्य भाषा! जब तक शिक्षकों के स्तर को सुधारा नहीं जायेगा शिक्षा के स्तर में सुधार की अपेक्षा करना बेमानी होगी.

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