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मार्च, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कौन है पब्लिक सर्वेंट नेता या अफसर?

कौन है पब्लिक सर्वेंट नेता या अफसर?  पब्लिक सर्वेंट कौन? एक बड़े नेता के अनुसार हम पब्लिक सर्वेंट हैं? अगर हां तो नौकरशाहों को क्या कहें? नेता किस तरह के पब्लिक सर्वेटं? जो अपनी योग्यता नौकरशाहों से कम रखते हैं?तथा पब्लिक सर्वेंट होने का दंब भरते हैं, नेता जनता का सेवक मानते हैं तो तो उनका चुनाव भी उन सरकारी सेवकों की तरह क्यों नहीं? जो पढ़ लिखकर बड़ी- बड़ी इंटर्व्यू फेस करते हें और उसके बाद ही ऊंची ऊंची कुर्सियों पर बैठने का हक हासिल करते हैं.आईएएस,आईपीएस,आईआरएस, आईएफएस जैसी सेवाओं की नौकरी पाने के लिये दिन रात मेहनत व ऐडी चोटी एक करनी पडती है लेकिन दुर्भाग्य कि बाद में यही नौकरशाह उन मिडिल और हायरसेकेण्डरी पास या फैल लोगों के आगे सलूट ेमारने और हाथ जोड़कर खड़े होने के लिये मजबूर हो जाते हैं.क्या यह इस देश के नौजवानो का अपमान नहीं है? क्या चुनाव आयोग या देश की सर्वोच्च अदालत को इस भेदभाव पर गंभीरता से सोचने की जरूरत नहीं है? क्यों नहीं देश के कर्णधार बन जाने वाले कथित पब्लिक सेवकों के लिये भी एक ऐसी तगड़ी व्यवस्था से गुजरने का रास्ता बना देती जो इस विषम विभिन्नता  को दूर नहीं कर देती? ह

क्यों की सीएसपी देव ने आत्महत्या?

25 फरवरी 2014  पिछली रात जज मारपीट कांड में निलंबित सीएसपी देवनारयण पटेल के घर जो कुछ हुआ वह चौका देने वाला है। प्रारंभिक रिपोर्ट यही कह रही है कि 2007 बेच के देवनारायण पटेल ने अपने घर में पत्नी प्रतिमा व दो बच्चों को गोली मारने के बाद खुद को भी गोली मार दी। दोनो बच्चों का रायपुर के रामकृष्ण अस्पताल में इलाज चल रहा है जहां बच्ची की  हालत गंभीर बताई जा रही है वहीं बेटे को खतरे से बाहर बताया गया है।। देवनारायण एक दबंग पुलिस अफसर के रूप में माने जाते रहे हैं उन्हें नक्सलियों से मुकबले के लिये वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। संपूर्ण घटना के पीछे रविवार रात का वह मामला है जिसमें पुलिस वालों की एक टीम सीएसपी के नेतृत्व में ढाबों व होटलो में अवैध शराब की जांच के लिये निकली थी, इस दौरान  सीएसपी की टीम संगम होटल  के पास पहुंची जहां जाम लगा हुआ था, इसी बीच डीएसपी व एडीजे ए. टोप्पो के बीच कहा सुनी हो गई और बात मारपीट तक आ पहुंची। बताया जाता है कि मारपीट के दौरान जज ने अपना परिचय भी दिया था लेकिन इसका असर पुलिस वालों पर नहीं हुआ, पुलिस का  आरोप था कि जज नशे में थे। सोमवार को जज ने डीजी

चुनावी नाराजगी, मानमुनव्वल के बीच एक युग का अंत!

चुनावी नाराजगी, मानमुनव्वल के बीच एक युग का अंत! आडवानी मान गये, जसवंत सिंह रूठ गये और छाया का बी फार्म रूक गया... ऐसी खबरों के बीच आज देश के एक महान लेखक खुशवंत सिंह  के निधन ने सभी प्रबुद्व वर्ग को दु:खी कर दिया. सबसे पहले भाजपा के उस महान नेता कि, जिसे लोग जनसंघ काल से जानते हैं तथा भाजपा को आज इस  मुकाम तक पहुंचाने में महान योगदान दिया हैं. इस पड़ाव में आकर इस वरिष्ठ नेता को मानसिक यातना झेलनी पड़ रही है वह अपने आप में एक विचित्र स्थिति है. अपनी मनचाही सीट पाने के लिये उन्हें जद्दोजेहद करनी पड़ी, अंत में वे उस बहुमत के आगे झुक गये जो उन्हें अपने निर्णयानुसार चलने की ताकीत दे रहा था. वास्तव में यह सोचने का विषय है कि आखिर ऐसा क्यों? आडवानी का इस बार कोप उनको भोपाल से टिकिट नहीं देना था, पार्टी उन्हें गांधीनगर या बडौदरा से टिकिट देना चाहती थी लेकिन वे भोपाल पर अड़े थे. अंतत: उन्हें अपने हाईकमान के आगे नतमस्तक होना पड़ा. जब भाजपा में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को संयोजक बनाया जा रहा था तब भी आडवानी का रूख कुछ इसी प्रकार ही था, जो कम से कम अडतालीस घंटे तक चला और फीका पड़ ग

नक्सलियों पर सेना का उपयोग करने में क्यों कतराती है सरकार?

आखिर वे कौन से कारण है, जिसके चलते सरकार नक्सलियों के खिलाफ सेना का उपयोग नहीं करती?हमने भी झीरम घाटी कांड के बाद इन्हीं कालमों में यह बात कही थी कि नक्सलियों से निपटने के लिये सेना का उपयोग किया जाना चाहिये ताकि इस समस्या का तत्काल निदान हो जाये. वास्तविकता क्या है?आप और हम सोचते हैं कि जब सरकार युद्व के साथ देश की अन्य समस्याओं जैसे बाढ़,दंगे, कर्फयू, यहां तक कि किसी गांव के बोर में बच्चा गिर जाय अथवा तेन्दुए के उत्पात से निपटने के लिये भी सेना बुला लेती है तो लगता है कि छत्तीसगढ़ सहित देश की नक्सली समस्या को निपटाने के लिये सेना का उपयोग किया जा सकता है! जो चंद घंटों में ही इस समस्या का हल निकाल सकती है लेकिन यह इतना आसान नहीं चूंकि ऐसा हुआ तो सेना को भारी संख्या में नक्सलियों के साथ- साथ कई निर्दोषों का खून भी बहाना होगा, शायद यही एक कारण है कि वह सेना को इस काम के लिये उपयोग में नहीं ला रही. सेना अपने दुश्मनों से सीधे मुकाबला करती है जबकि नक्सलियों से  मुकाबला कुछ भिन्न है, जो एक तरह से आम ग्रामीणों के जीवन को खतरे में डालना भी है. असल में नक्सलियों की लड़ाई का तरीका ही भिन्न है, ग

भागम भाग....और अंतिम पढ़ाव राजनीति!

भागम भाग....और अंतिम पढ़ाव राजनीति! जंगल परिवार में जानवरों पक्षियों के बीच एक आदत पाई जाती है- जब  उनके बीच कोई अपरिचित प्राणी आ जाये तो उनका व्यवहार बदल जाता है मसलन वे कू्ररता करने लगते हैं, यहां तक कि उनपर हिंसक हो जाते हैं. यह बात मनुष्यों के बीच पलने वाले जानवरों विशेषकर डागी में भी पाई जाती है फिर मनुष्य इससे क्यों अलग हो- स्कूल कालेजों में कोई नया छात्र आ जाये तो उससे रेगिंग के नाम पर जो कुछ होता है उससे कोई अपरिचित नहीं है, उसके कपड़े तक फाड डाले जाते हैं.... और अब वर्षो बाद राजनीति में भी कुछ इसी प्रकार की प्रवृत्ति शुरू हो गई है. भारतीय राजनीतिक इतिहास में यूं तो कई राजनीतिक पािर्टयों का उदय और अस्त हुआ किन्तु यह भी पहली बार हो रहा है जब हाल ही उदित हुई एक नई पार्टी विशिष्ट तरह की परिस्थितियों का सामना कर रही है. किसी की नजर उसपर टेड़ी है तो कोई उसे घूरकर देख रहा है तो कोई उसपर झपट रहा है तो कोई हिंसक रूप धारण कर रहा है इतना ही नहीं मीडिया की भी उसपर कोई मेहरबानी नहीं ह,ै विशेषकर इलेक्ट्रानिक मीडिया जो कभी उसके बहुत ही फेवर में दिखाई पड़ता है तो कभी ऐसा लगता है कि उसे बाहर कर

वोटर कौन हो?प्रत्याशी कैसा हो इसमें कौन करेगा चेंज?

वोटर कौन हो?प्रत्याशी कैसा हो इसमें कौन करेगा चेंज? एक आम मतदाता, जो पढ़ा लिखा है व सब समझता है- वर्तमान चुनाव पद्वति के बारे में क्या सोचता है? विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा तो हम करते हैं और पिछले पैसठ वर्षो से उप चुनाव, मध्यावधि या आम चुनाव हो रहे हैं लेकिन क्या इस व्यवस्था ने आम मतदाताओं के दर्द को कभी देखा,समझा या महसूस किया है? पांच साल की अवधि के लिये एक बार मतदाता को यह अधिकार दिया जाता है कि वह अपने जनप्रतिनिधि या माननीय जो भी कहे का चुनाव करें लेकिन उसके बाद वोटर किन परिस्थितियों से गुजरता है?उसको दिये गये वायदों को कितना पूरा किया गया?और उस जनप्रतिनिधि का पांच साल का परफोरमेंस कैसा रहा यह सब देखने का प्रयास किसी स्तर पर नहीं होता. हमें अपने बीच से एक व्यक्ति को चुनने का तो विकल्प दे दिया जाता है लेकिन क्या कभी इस बात पर गौर किया जा  रहा है कि वह व्यक्ति कौन है, केैसा है उसका बैक ग्राउण्ड क्या है? उसकी क्वालिफिकेशन क्या है?क्या वह चुनाव जीतने के बाद कभी जनता के बीच गया है? क्या उसने विधानसभा या लोकसभा में कभी जनता की आवाज उठाई? प्रत्याशी कोई भी हो, पार्टियां चयन

थोड़े बहुत ही ईमानदार बचे हैं, उन्हें जीने दो!

कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपना काम ईमानदारी और निष्ठा से करते हैं ऐसे में किसी दूसरे का दखल उसकी आत्मा को कचोटता है, यह उस समय और भी आत्मघाती हो जाता है जब वह खुद भी यही महसूस करता है कि मैने जब कोई गलती ही नहीं कि तो मुझ्ंो यह सजा क्यों दी जा रही है। आत्मसम्मानी लोगों के साथ ऐसा होता है और वे इन परिस्थितियो में ऐसा कोई भी कदम उठाने में संकोच नहीं करते। जगदलपुर के सीएसपी देवनारायण शर्मा और बिलासपुर के एसपी राहुल शर्मा को क्या हम इस श्रेणी में नहीं रख सकते? जो व्यक्ति अपने कर्तव्यों को ईमानदारी और निष्ठा से निभाता है तो उसे किसी का भय नहीं रहता वह किसी की परवाह किये बगैर आगे बढता जाता है, कोई बाधा आने पर भी उसका मुकाबाला भी उसी दबंगता के साथ करता है लेकिन लेकिन ऐसे लोगों को मुसीबतों का सामना भी बहुत करना पड़ता है। अंदर से नरम और अच्छे दिलवाला होने के बावजूद भी लोग उसे कठोर,अडियल,  जिद्दी जैसे शब्दों का प्रयोग करते है, इसकी परवाह भी उसे नहीं रहती मगर जब उसे काम सौपने वाले ही किसी के बहकावे में आकर अथवा स्वंय ही निर्णय ले बैठते हैं तो यह एक खतरनाक मोड़ पर पहुंच जाता है। कुछ सालों से देश

लहर किस ओर ? फिफटी-फिफटी या एक तरफा?

सेोलह मई... कौन बनेगा प्रधानमंत्री? एक अरब बीस करोड़ की आबादी वाले सबसे बड़े लोकतंत्र में इक्यासी करोड़ से ज्यादा मतदाताओं के बीच से इस सवाल का जवाब खोजना आसान नहीं, जितनी मुंह उतनी बाते.. देश की जनता क्या चाहती है?यह उसी समय पता चलेगा जब मतों की गणना होगी मगर यह जरूर कहा जा सकता है कि किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिलेगा। यह भी नहीं कहा जा सकता कि यूपीए फिर सत्ता में आयेगी और यह भी नहीं कहा जा सकता कि एनडीए सत्ता पर काबिज होगी लेकिन इस समय सिहासन के सबसे करीब कोई अपने आपको देख रहा है तो वह है भारतीय जनता पार्टी. चुनाव घोषणा से पूर्व तक उसने देश के कुछ हिस्से में कम से कम माहौल तो ऐसा  बना लिया है किन्तु यह भी मानकर चलना चाहिये कि भाजपा का अकेले सत्ता पर काबिज होना आसान नहीं वह दो सौ बहत्तर का बहुमत  लाने का दावा कर रही है लेकिन इतनी सीटे कहां से लायेंगी?खुद बहुमत के लायक सीटो पर भाजपा चुनाव नहीं लड़ रही जबकि कुछ सीटे उसने अपने सहयोगियों को बांट दी है. प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रेलियों में लच्छेदार भाषणों से माहौल बनान का प्रयास जरूर कर रहे हैं लेकिन रेैलियों की भीड़ जो टीवी पर दिखाई

सिंहासन छीनने, पाने व अस्तित्व कायम रखने की लड़ाई!

 सिंहासन छीनने, पाने व अस्तित्व कायम रखने की लड़ाई! यूपीए, एनडीए, तीसरा मोर्चा और छुटकू(?) पार्टी- 'आप -यह चार पहलवान इस बार लोकसभा चुनाव के अखाड़े में हैं इनमें से कौन सत्ता पर काबिज होगा इस पर अभी से कयास लगाना मुश्किल है लेकिन पार्टियां जिस ढंग से ताल ठोक रही हैं उससे लगता है कि मुकाबला न केवल रोमांचक होगा वरन कई पार्टियों का अस्तित्व भी दाव पर लगा हुआ है। ससंद में पिछले एक सप्ताह के दौरान जो कुछ हुआ वह लोकतांत्रिक व्यवस्था का अभूतपूर्व समय माना जा सकता है जो सत्ता पर काबिज होने के लिये अब तक किया गया सबसे बड़ा कूटचक्र कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। सत्ता पर दस साल काबिज रहने के बाद कांगे्रस नीत यूपीए चुनाव के बाद क्या फिर सत्ता पर काबिज होगी? या एनडीए, तीसरा मोर्चा अथवा 'आपÓ? राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों ने देश के चुनाव का समीकरण ही बदलकर रख दिया है। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान,और मणिपुर चुनाव में जहां भाजपा और कांग्रेस काबिज हो गये वहीं दिल्ली में किसी पार्टी को बहुमत न मिलना तथा आम आदमी पार्टी का उदय तथा बाद में उसका कांग्रेस के समर्थन से दिल्ली में सरकार बन

'सुसाइड के एक नहीं कई कारण

मानसिक तनाव, गृह कलह, कर्ज, पे्रम मेें विफलता, चरित्र पर संदेह,  परीक्षा में अंक कम आना, परीक्षा में फैल होना,  यह कुछ ऐसे कारण है जिसके चलते इंसान आत्महत्या जैसे कदम उठाते हैं। आत्महत्या का रूप अब विस्तारित होने लगा है। लोग अब खुद तो अपने आपको खत्म कर ही रहे हैं दूसरे को भी खत्म कर अपने  आपको खत्म करने  पर तुल गये हैं।   एनसीआरबी- ''नेशनल कोएलीगेशन आफ मेन जेण्डर इक्वालिटी एण्ड सोशलिस्ट की रिपोर्ट के अनुसार आत्महत्या का राष्ट्रीय औसत 11.2 है जबकि छत्तीसगढ़ का 4.2 प्रतिशत। छत्तीसगढ़ में किसान से लेकर आईएएस आईपीएस तक की आत्महत्या के मामले सामने आये हैं ।अब इन दो चार महीनो में परिवार के मुखिया या परिवार के किसी सदस्य द्वारा सभी सदस्यों को मारकर आत्महत्या एक फैशन सा बना हुआ है। पिछले  साल एक सिरफिरे ने कबीर नगर में अपनी पत्नी व दो मासूम बच्चों का खून कर दिया । जबकि एक बच्चा कैसे भी बच गया वहीं शुक्रवार को रायपुर के ही ताज नगर में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी व दो मासूम बच्चों की गला दबाकर  हत्या कर दी फिर खुद भी फांसी पर झूल गया। गरीबी से तंग आकर दुर्ग में एक पूरा परिवार पिछले साल आत्म

मनुष्य के रक्त से ईश्वर को खुश करने का खेल!

कभी देवी को प्रसन्न करने के लिये तो कभी मन्नत पूरी कराने के लिये तो कभी अपने व्यवसाय की उन्नती के  लिये मनुष्य का खून कर देना सत्रहवीं सदी में माया संस्कृति से शुरू हुआ जो आज भी छत्तीसगढ़ सहित देश के कई राज्यों में मौजूद है।  नई संस्कृति,विज्ञान, टेक्नोलाजी सब इसके सामने फैल है। छत्तीसगढ़ के थान खम्हरिया में असफल नरबलि की कोशिश ने सोमवार को पूरे देश को हिलाकर रख दिया जब एनीकेट निर्माण में लगे ठेकेदार के आदमियों ने एक बारह साल के बच्चे अंकुश ़को पकडकर जिंदा दफन करने का प्रयास किया। वह तो छूट गया लेकिन इस घटना ने समा़ज को सोचने के लिये कई प्रश्र छोड़ दिये। आखिर हम किस युग में जी रहे हैं? और किस विकृ त मानसिकता तथा अंधविश्वास से पीड़ित लोगों को हमारे बीच पाल रहे हैं? थान खम्हरिया में छत्तीसगढ़ सरकार के जल संसाधन विभाग का एनीकट निर्माण कार्य चल रहा है। कार्य ठेके पर दिया गया है, ठेेकेदार के मैनेजर और साथियों ने मिलकर शंकर निर्मलकर के आठ साल के बेेटे अंकुश निर्मलकर को उस समय उठा लिया जब वह शौच के लिये गया हुआ था। उसे मारपीट कर गला दबाते हुए बोरे में भरकर जिंदा दफन करने की कोशिश की जा रही थी तब

बाहुबल-धनबल की तुला पर कानून!

एक गरीब या मध्यमवर्ग का आदमी कानून तोड़ता है तो उसे पुलिस अपने थाने के अंदर बने उन सलाखो के पीछे भेजता है जिसमें से मल -मूत्र की बदबू आती है और एक पहचान वाला या थोड़ा रसूख रखने वाला कानून तोड़ता है तो उसे थानेदार अपनी गोद में बिठाता है और जब कोई बाहुबलि या धनपति कानून का खून करता है तो उसे वातानुकूलित अस्पताल की शैया पर या आलीशान रेस्ट हाउस में सर्वसुविधाओं के साथ रहने की इजाजत देता है आखिर देश में कानून को यूं विभाजित करने का अधिकार किसने दिया ? क्यों दोहरे- तिहरे मापदंड अपनाये जाते हैं? हमारे संविधान ने तो सभी को समान अधिकार दिया है फिर गरीब-मध्यम वर्ग के लिये एक कानून,बाहुबलि के लिये दूसरा कानून और धनपति के लिये तीसरा कानून क्यों? एक ही कानून को अलग-अलग विभाजित करने का अधिकार कानून के रखवालों को किसने दिया ?  कानून को चंद लोगों ने अपनी जेब में रखकर उसका मखौल बना दिया है.जो कानून आम आदमी की रक्षा के लिये बना है उसे यूं ढीला बना दिया कि उसमें सफेदपोश अपराधी पतली गली से कानून को अपने पैरों तले कुचलता हुआ निकल जाता है. कानून के भीतर कितना सुरक्षित है आम आदमी? जब कोई बाहुबलि, रसूखदार या